Tuesday, February 9, 2021

इन शब्दों में डूबा एक सपना है और उस सपने में दूर-दूर तक फैला है कोई रंग......


 १=वो आँखें


वो हंसी

वो चेहरा

वो शब्द

और उन लटों की सादगी

बहुत अपरिचित है

मेरी हर उदसी से

क्योंकि उनसे रिश्ता है मेरा

बस एक मुस्कुराहट का।
"विवेक तिवारी"
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२=कभी-कभी दिखता है

किसी सागर तट पर

लहरों के बीच

दिप-दिप करता हुआ

एक चांद का अक्स

बिखरे केश

दीप्त नयन

और एक गरिमामय मुस्कान

इस धरा पर रहती किसी मानुषी की

क्या तुम वसंत की पुत्री हो ?

या फिर चांद का कोई रहस्य ?

"विवेक तिवारी"
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३=ये रोशनी से भरी
झिलमिलाती आंखें
रंगों से लिपटी
गुलाबी हंसी
चांद-सितारों सरीखा
करिश्माई रंग
सचमुच
तुम जैसी
तो बस तुम ही हो ।
"विवेक तिवारी"
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४=प्रेम
कोई जादुई शब्द
कोई व्यापक अर्थ
कोई गहरा जुड़ाव
कोई तैरता एहसास
बेशक अनजाने में ही सही
पर हो तो जाता ही है न ।
"विवेक तिवारी"
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५=शायद दुनिया नहीं जानती
हिमशिखरों पर रहती
उस राजकुमारी के बारे में

जिसके एक इशारे पर
बहती है हवा
बहता है जल
बदलती हैं ऋतुएं
बदलता है आकाश का रंग

और शायद ये भी नहीं जानती
कि उसकी आँखें
उसकी हंसी
उसका चेहरा
उसके शब्द
और उसकी सादगी
कामना जगाकर
मंत्र-मुग्ध कर देती है मुझे

सिर्फ़ इतना ही नहीं
न जानें
कितने कल्पों,ऋतुओं,संवत्सरों में
गूंजता हुआ
उसको संबोधित
मेरा हर-एक विचार
हर-एक गीत
हर-एक कविता
हर-एक साहित्य
आभूषण है मेरा
उसको सजाने के लिये

हालांकि
उसके खो जाने के
तमाम डरों के बावजूद
उससे बिना-मिले
बिना-कहे
उसकी हर एक भावना से बेख़बर
मैंने उससे
एक रिश्ता बनाया है
एक-तरफा प्रेम का
जो शायद कभी ख़त्म नहीं होगा ।
"विवेक तिवारी"
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६=मेरी उनींदी रातों के सपनों में
तुमसे रू-ब-रू होती
गुज़रती हवा
दरख़्तों की खिलखिलाती हंसी
पर्वतों,मैदानों,घाटियों में
पिघलती चांदनी

क्या यह तुम हो ?

या फिर,सदियों से
सर्दी-गर्मी-वर्षा
और जीवन की रोशनी के सारे रंगों में
बहुत गहरे में समायी
नई इबारतें लिखती
कोई ख़ुशबू अनंतजीवी हो गई है ।
"विवेक तिवारी"
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७=बहुत ज़्यादा नहीं जानता
तुम्हारे बारे में
बस कभी देखा है तुमको
लैंपपोस्टों की
पीली रोशनी में
सड़कों से गुजरते हुए

और फिर वर्षों से
रोज़
उसी समय
उन सड़को पर
तुम्हारी एक झलक
देख भर लेने का अहसास
मेरे लिये
हर विस्मय,हर कोलाहल से दूर
इस धरती पर
एक बेइंतहा ख़ूबसूरत
पूर्णिमां के चांद को देख-लेने जैसा था

सिर्फ़ इतना ही नहीं
उन्हीं रास्तों पर
तुम्हारे गुज़रने के कारण
प्यार की ठंड़ी हवाएं
ख़्वाबों की लहरों के साथ
ह्रदय से टकराकर
चारों तरफ़
फैलती
एक भीनी-सी सुगन्ध
बिखेरती जाती थी

और फिर अचानक किसी दिन
तुम्हारा उन्हीं रास्तों से गुज़रकर
वर्षों-तक न दिखना
बहुत भीतर तक
झिंझोड़ गया मुझे

तुमसे कुछ कह न पानें की
एक अजीब-क़सक लिये
वर्षों से मैं आज भी
उन्ही रास्तों पे निकलता
तुम्हें खोजता-फिरता
महसूस करता हूं
तुमको
और
तुम्हारे उन रास्तों से गुज़रनें को

और आज भी महसूस करता हूं
तुम्हारे अपनत्व में लिखी
कविताओं में
प्रेम की अपनी
सघन परछाइयों को ।
"विवेक तिवारी"
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८=एक अद्भुत घटना घटी
मुझे तुमसे प्रेम हुआ
और तुम अचानक खो गयी

फिर...
न जाने तुम्हें कहाँ-२ तलाशा
कभी किसी रेलगाड़ी के ड़िब्बों में
कभी किसी नगर की चलती भीड़ो के बीच
न जाने कितनी सड़कों,गलियों,पगडंडियों में
न जाने कितने देशों,द्वीपों,मरुभूमियों
और वनों के बीच

प्रेम के इन विराट चक्रों में
सिर्फ़ खोजता रहा तुमको..........

कई वर्षों बाद
जीवन के किसी मोड़ पर
अचानक मिली तुम

ये किसके साथ
कितने जन्मों की दूरी पर
मेरी हर एक भावना से बेखबर..........................

अब शायद तुमसे कभी कह न सकूँ
अपनी सारी भावनाएं
अपने तमाम सपने
जो सिर्फ़ और सिर्फ़
बस तुम्हारे लिये ही थे

और शायद तुम नहीं जानती
तुम सिर्फ़ एक लड़की नहीं
कोई लफ्ज़ों का पुल नहीं
तुम किसी चेतना के कोने-कोने को
उत्साह,उल्लास,उमंग
और ताज़गी से पुलकित करती
कोई ख़ुशबू
कोई वैभव
कोई परिपूर्ण छवि
मन को छूने वाली भावनाएं
और किसी अस्तित्व का हिस्सा थी

जिसे जिया है मैंने
मौसमों
दस्तकों
चाहतों
और बारिशों में ताउम्र

और आज भी तुम्हें जीता हूँ
ह्रदय की गहरी भावनाओं में
तीव्र गति से उमड़ते
झंझावातों के बीच
और कभी
धीरे-धीरे जागती
आत्मपरक-समकालीन-सार्थकता की अनुगूंजों में

और आज भी कहीं
भीतर तक चूर-चूर होते गये
उन्हीं सपनों की परिक्रमा करता
तुमसे मीलों दूर
जलता रहता हूँ निष्कम्प ।
"विवेक तिवारी"
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९=ये तो पता था
तुम मिलोगी एक दिन
पर ये नहीं पता था
तुम मिलोगी नहीं
विश्वास था खुद पर
अपनी प्रार्थनाओं पर
जो जितनी गहरी
उतनी ही सच्ची थी...........

ख़ैर.....
ये तो बरसों पहले की बात है
अब तो काफ़ी वक़्त गुज़र चुका है

पर ज़्यादा फ़र्क़ कहाँ पड़ता है
प्यार में कोई मिले न मिले
पर इस धरती पर
ओर से छोर तक
पूरे के पूरे कालखंड़ में
उसका रंग,ख़ुशबू,परछाई,सम्मोहन
तो हमेशा साथ ही चलता है ।
"विवेक तिवारी"
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१०=आज, इस पल
किसी सुख में
किसी दुःख में
दूर-दूर तक
कहीं नहीं हो तुम
पर फिर भी
इस जीवन की आपाधापी में
हिंदुस्तान की नदियों से मीलों दूर
टेम्स की अजनबी लहरों में
एक छाया बहती है
और वर्षों पहले का देखा
एक चेहरा
अचानक याद आता है।
"विवेक तिवारी"
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११=जीवन के इस मोड़ पर
आज,इस वक़्त
पता नहीं
कहाँ होगी तुम
पर आज भी
कहीं और
किसी अलग देश में
किसी अलग छोर पर
बिना किसी गैरहाजिरी के
पर्वतों-मैदानों-घाटियों
द्वीपों-समुद्रों को पार करके
ख़ुशबू बनकर
बहती रहती हो तुम इन हवाओं में।
"विवेक तिवारी"
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१२=जो कभी कहा नहीं गया
वो आज लिखा जा रहा है
और कभी शायद तुम
उसे पढ़ो भी...................

और शायद तब उस दिन
इन शब्दों का इन्तज़ार ख़त्म हो जाए.....

और शायद तब
अपने ही रंग में रंगा
गुलाबी पन्नों पर लिखा
सपनों का वह बेसब्र हुआ हिस्सा
जिसे मैंने महसूस किया है
उसे तुम भी महसूस कर सको ।
"विवेक तिवारी"
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१३=मैं अतीत में जा रहा हूँ

इतिहास के चन्द-पन्नों में डूबी हो तुम
अचानक तुम्हें मिलता है एक राजकुमार
बहुत अनुभवी है बातों में
बहुत आकर्षक हैं उसकी अदाएं

है उसके पास
दूर देश के झरनों का मीठा पानी
ताजे लाल-गुलाब के फूल

और मैंने तुम्हें खो दिया

वह सड़कें,पगवाहट,पगडंडियां
सब बीते वक़्त की बात हुए

अतीत में छूटी तुम
आज मुझसे ना जाने कितने जन्मों की दूरी पर हो  ?

और मैं युगों-युगों से आज भी जीवित हूँ
एक महाकाव्य में तुम्हें अमर करने को

आज भी दिखता है
कोई मुस्कुराता चेहरा
सुनाई पड़ते हैं शब्द
बहती है ख़ुशबू
इन हवाओं में
पर न जाने कब
आएगा कोई सपना ।
"विवेक तिवारी"
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१४=सोचा नहीं था
कभी तुम्हारे बिना भी
जीना पड़ेगा

पर हमेशा
वैसा कुछ नहीं होता
जैसा मैंने चाहा था

और फिर कुछ नहीं सूझता
बस ज़िन्दगी के ठहरे हुए लम्हों
और अतीत के ख़्वाबों-ख़्यालों के बीच
हर कविता का राग तुम्हीं बन जाती हो ।
"विवेक तिवारी"
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१५=इस पल-प्रतिपल बदलती दुनिया में
जहाँ बदल गया है सब
पर कुछ है
जो शेष है
शायद अभी बदला नहीं

सच में
अजब है प्रेम
ग़जब है याद
चाहे किसी सभ्यता में
कितनी ही दूरियाँ तय करूं
अमेरिका-इंग्लैण्ड-जर्मनी-फ्रांस
चाहे जहाँ रहूं
पर चेतना के भीतर
चलती-उखड़ती सांसों में
कहीं-न-कहीं बाक़ी रह ही जाता है
हवाओं में उड़ता रंग
वजूद से लिपटी यादें
और शब्द-दृश्य-परिवर्तन का एक तैरता अहसास

पर न जाने क्यों
किसके लिए
किससे
ये सब कह रहा हूं मैं
कहीं जिन्दगी भी ऐसे चलती है क्या ?
"विवेक तिवारी"
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१६=एक चेहरा
जो उस चांद से भी ज्यादा ख़ूबसूरत है
एक मुस्कुराहट
जो आंखों में बसी रहती है
एक आवाज़
जो इतने वर्षों बाद भी
नगर-नगर गांव-गांव
उड़ती-महकती दिखाई देती है

और इन सबके अतिरिक्त
एक रिश्ता
जो जन्मों से अटूट और मज़बूत है

पर एक दूरी
जो तय न की जा सकी
और एक इंतज़ार
जो कभी ख़त्म नहीं होगा

पर फिर भी
जिस गहराई से
तुम्हारे लिए ही सपने-संजोकर
तुम्हारे लिए ही बनाई दुनिया में
कितने ही ख़्वाबों
कितने ही रंगों
ओस की थिरकती बूँदों
लयबद्ध हवाओं
और न जाने कहाँ-कहाँ बिखरी
अनगिनत भूमिकाओं में
शाश्वत-निर्मल-निर्द्वंद्व
गढ़ा है तुम्हें

क्या उस गहराई को
कभी जान पाओगी तुम ?
"विवेक तिवारी"
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१७=पहले तुम मिलती
तो बस मुझको मिलती

पर आज
एहसासों के धरातल पर
कुछ और अधिक
इससे भी आगे
न जाने कितने रहस्यों
प्रतिबिम्बों
अनजानी आवाज़ों
और अनगिनत अवधारणाओं में झिलमिलाते
रंग-बिखराते
इस धरती के कोने-कोने में
कहीं-भी
कभी-भी
हर जगह
इस दुनिया को
मिल जाती हो तुम

पर क्या
किसी अनोखी दुनिया में
सदी-दर-सदी
किसी ह्रदय पर पड़ी
एक अमिट छाप

और जिस धड़कन से
ये युग धड़केगा
क्या उसको सुन पा रही हो तुम ?
"विवेक तिवारी"
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१८=जो तुम कभी समझ नहीं सकीं
पर जो तुम्हें समझना चाहिए था
जो मुमकिन है
ना-मुमकिन नहीं

जैसे कि
फूलों का खिलना
बूंदों का स्पर्श
धरती पर झिलमिलाती चांदनी
चांद-सितारों का चमकता रंग

और जैसे कि
क्यों आज इस वक़्त
प्रेम के धुंधलकों-भावावेगों में
कोई गहरा अर्थ तलाशते हुए
आकाश में घने बादल
और इन्तज़ार करती हुई पगडंडियों के बीच
जीवंत-प्रांजल
जलपरियों जैसा
एक चेहरा उभरता है आंखों में
"विवेक तिवारी"
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१९=कभी-कभी लगता है
कितना अजीब है
निरन्तर
चक्र-दर-चक्र चलती
एक ज़िन्दगी
और बीतते वक़्त की रफ़्तार में
दूर-दूर तक
धुँधली होती जा रही तस्वीरों के बीच
एक चेहरा
अनायास ही आकर
आँखों के इर्द-गिर्द मँडराता
ख़ुशबू बिखेरता
ज्यों का त्यों बना रहता है

है न शायद कितना अजीब......

पर पहले तुम जो एक सपना थी
पर आज
तुम कोई सपना नहीं
तुम कोई भाव
कोई अर्थ
किसी अस्तित्व का हिस्सा
हवाओं में लहराता,भीगता
सोंधापन लिए
एक कभी न ख़त्म होने वाला
सदियों का इंतज़ार हो

पर ईश्वर
इतनी शक्ति देना
कि इस धरती पर
जिस अस्तित्व को मैने
हर मौसम
हर ख़ुशबू
और हर आहट की गूंजों-अनुगूंजों में
अपनी पूरी शिद्दत से चाहा और तलाशा है
उसे सारी उम्र उतनी ही शिद्दत से जी सकूं |
"विवेक तिवारी "
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२०=आज तुम्हारा जन्मदिन है

मैं तुम्हारा जन्मदिन मनाऊंगा

इस बार भी अकेले

किसी मन्दिर में जाकर

ईश्वर से कुछ माँगकर

फिर सोचूँगा

क्या तुम तक पहुँच पाएंगी मेरी शुभकामनाएं ?

तुमसे मीलों-दूर

किसी नदी के किनारे बसे किसी महानगर में

तुम्हारी यादों को घेरे

तुम्हारा नाम पुकारते

तुम्हें याद करूंगा मैं

पर क्या,

तुम याद-करोगी मुझे ?

क्या कभी याद करोगी मैं कैसा हूं ?

ख़ैर जाने दो

मैं महसूस करता हूं

एक परिवर्तित इतिहास

जिसका इस सभ्यता के अवशेषों में

कोई पुनर्पाठ कभी नहीं होना है

और इस बार भी

कालखंड के अनंत छोर तक

जाती हवाओं से

मुझे तुम्हें शुभकामनाएं भेजनी हैं ।
"विवेक तिवारी"
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२१=सच है
प्यार के बाद
बदलते मौसम की करवटों में
चाहे जितना भी वक़्त गुज़र जाए
पर मन की भीतरी परतों में
अहसास,उमंगों,स्मृतियों
और सपनों का संसार नहीं बदलता

और शायद यही एक वज़ह है
हर एक दर्द
बेचैनी
अन्तर्व्यथाओं
अधूरेपन की

पर न जाने कब
ये सब जान पाओगी तुम

और न जाने कब जान पाओगी
कितना चाहा है तुम्हें
कितनी मन्नते मांगी हैं
और ये दिल आज भी
भरा-पड़ा है भावनाओं से
और जीवन के हर-एक मोड़ पर
तुम्हारी ही सबसे ज़्यादा जरुरत है

पर जानता हूं
तुम कभी मिलोगी नहीं

पर फिर भी
इस जीवन की आपाधापी में
एक विशुद्ध प्रेम कि तलाश
और प्रतिबन्धों-रूढ़ियों-मान्यताओं की धज्जियाँ उड़ाते
हर मौसम में हर लम्हा
हफ्तों
महीनों
सालों
तुम्हें तो पूरी उम्र जीना है ।
"विवेक तिवारी"
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२२=कभी-कभी सोचता हूं
आज तुम्हारे पास सबके लिए वक़्त है
पर ख़ुद के लिये नहीं
और न जाने क्यों
एक खनकती-सी आवाज़
दब सी गई है ?

शायद तुम्हें ख़ुद के लिए भी वक़्त निकालना चाहिए

और आज भी
किसी शहर के चहकते-दहकते मौसम में
सरकारी फ़ाइलों से जूझते
फ़ोन उठाते
किसी ऑफ़िस में बैठी हो तुम
घर लौटने के इंतज़ार में

पर शायद
जानता तो हूं
वक़्त की अजनबी करवट में
सिर्फ़ प्राथमिकताएं ही नहीं
भूमिकाएं भी बदल जाती हैं ।
"विवेक तिवारी"
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२३=ऐसा नहीं है
कभी भूलना नहीं चाहा
हर बार सोचा
हर एक याद मिटा दूँगा
पर हर बार
ये आत्मबल
तुम्हारी यादों के सामने
एक कोरा छल साबित होता
और तुम किसी सम्मोहन के
विस्तार,गहराई और ऊँचाई में
इकट्ठा होते सपनों
और उमड़ती संवेदनाओं के बीच
जीती-जागती,हंसती-मुस्कुराती
ज्यों की त्यों दिखायी देती ।
"विवेक तिवारी"
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२४=किसी दिन
चैत की सुलगती शामों में
जब किसी समुद्र तट पर
अचानक डोलती है हवा
तो डोलता है मन

और फिर
कुछ देर बाद
चांद की पीली आभा में
बारिश की हल्की-फ़ुहारों के बीच
चमकती
उसकी आंखों का रंग

और फिर
हिलोरे लेती
लहरों की गूंज में
कहीं महसूस होती है
किसी जूही की महक

पर सुनो
ये सब और कुछ नहीं
बस ,तुम्हारी याद आ रही है मुझे ।
"विवेक तिवारी"
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२५=आज कुछ लिख रहा हूं
प्रेम की किसी
बहुत गहरी भावना से वशीभूत होकर

क्या ये प्रेम की पहली कविता है ?
या फिर मेरी जलन का कोई रहस्य ?

आज मुझे दिखती हैं
नदी में उदास तरंगें
घाटों का सूनापन
मेलों में बिखरी शान्ति
भीड़ों का अकेलापन

पर मेरी इस उदासी से
बहुत ख़ुश है
इस आकाश का चांद

क्योंकि चला जाता है वो
सैकड़ों नदियों,झीलों,झरनों
पर्वतों और नगरों को
पार करते हुए
तुम्हारी छत तक

और बढ़ाकर मेरी बेचैनी
ताकता रहता है तुमको
आहिस्ता-आहिस्ता

और फिर लगता है
तुम्हें और चांद को छोड़कर
सिर्फ़ मैं ही नहीं
बल्कि सभी उदास है।
"विवेक तिवारी"
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२६=मैंने लिखा तो बस तुम्हारे लिये ही है
पर पता नहीं
तुम्हारे ख़्यालों में आती हवाओं में
ये आवाज़ पहुँचती है कि नहीं ?
"विवेक तिवारी"
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२७=सच कहूं
तुम्हें तो अपनी आँखें और हंसी
पेटेंट करा लेनी चाहिए।
"विवेक तिवारी"
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२८=कभी-कभी लगता है
शायद फिजूल ही है
किसी को चाहना
सोते-जागते हर वक़्त
किसी खोई परछाई को
इतना क़रीब महसूस करना
जबकि पता है एक दिन
स्मृतियों के स्थाई भावों से कहीं दूर
बदले-बदले रूप-रंग में
बस एक इंतज़ार ही रह जाएगा ।
"विवेक तिवारी"
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२९=आज एक बार फिर
तुम्हारी याद आयी
कुछ शब्द सुनाई दिये
स्मृतियों में रमा
एक चेहरा
पहले जैसा ही
दमकता रहा...........

और एक बार फिर
जीवन की परिधि के
विराट संदर्भों में
अनगिनत परिभाषाएं बुनकर
सारे बाग-बगीचे
फूल-ख़ुशबू-तितलियाँ
और अनंत श्रृंखलाओं का ख़ालीपन छोड़कर
तुम चली गई
और मैं अकेला रह गया ।
"विवेक तिवारी"
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३०=कहते तो है
बड़ी कुव्वत है
प्रेम के अनंत रागों
और एहसासों की सरगम में

और शायद इसीलिए
चाहा तो है
उत्साह,उल्लास,उमंगों
और शब्दों के गलियारे में
तुम्हें उस स्तर तक उकेरना
कि युग-युगान्तर तक
शताब्दियों के पूरे अन्त तक
इन काग़ज़ के फूलों में
तुम्हारी ख़ुशबू बनी रहे

पर उफ़,
कहीं ऐसा न हो
कि इस जीवन की आपाधापी में
निरन्तर
परत-दर-परत
लक़ीर-दर-लक़ीर
सीढ़ियां चढ़ती एक उम्र
कहीं कम न पड़ जाए ।
"विवेक तिवारी"
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३१=इस दुनिया में
क्षितिज से बहुत दूर
बसे किसी महानगर में
तुम्हारा सहजता,सौम्यता
और सादगी से
किसी रूह में प्रवेश कर जाना
कोई सपना नहीं
किसी सपनें के
पार देखने जैसा है

और फिर
उन सपनों के पार
दरख़्तों की छायाओं में
ख़ूबसूरती का दीया जलाकर
चमकते लम्हों
गहरे जज़्बातों
और दिल में उमड़ते
ज्वारों के साथ
उन रास्तों पर मंडराती
ख़ुशबू बिखेरती
गुजरती
एक उम्र
वहाँ तक
चली जाती है
जहाँ
आज भी
जमा होते मिलते हैं
तुम्हारी हंसी के
ख़ूबसूरत निशान...।
"विवेक तिवारी"
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३२=धीमे-धीमे वक़्त बीतता जाएगा
और समय तय कर चुकेगा
जीवन की विशाल दूरियां

जीवन के उस मोड़ पर
पता नहीं
कहां होगी तुम

शायद चाहकर भी
कोई झलक
कोई आवाज़
कोई ख़बर न मिले

पर जानता हूं
कभी भूल नहीं पाउंगा तुम्हें
और डायरी के पन्ने
अपनी हर धड़कन में
भावुकता का सफ़र करते
स्वर लहरियां बिखेरते
जानना तो चाहेंगे ही
तुम्हारे बारे में
और पूछेंगे तो है ही
क्या आज भी
इस वक़्त के तकाजे में
इतने वर्षों बाद
तुम्हारी आँखों में
उतनी ही ख़ूबसूरती
उतनी ही रंगत है।
"विवेक तिवारी"
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३३=नए-नए रागों की दस्तक
और बौछारों से
मैं लिखता हूं तुम्हें

और न जाने कब से
नए दशक की नई-नई भूमिकाओं में
लगातार चाहा है
कि ये रंगों के जीवन्त टुकड़े
मीलों दूरियां तय करते
चेतना की दीवारों पर
हर वक़्त
तुम्हारे साथ रहें

और आज भी
मन में उभरते रेखाचित्रों में
ठहरते-चलते
कई बार ऐसा लगता है
कि उन झूमते ख़्वाबों की
झांकती लहरों का
तुम्हें पता तो है ।
"विवेक तिवारी"
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३४=सच में
कितना ख़ूबसूरत है
तुम्हारा नाम
कभी किसी उलझन में
मैं उसे लिखूं न लिखूं
पर फूलों में
रंगों में
ख़ुशबू में
सिहरन में
हवाओं के झोंके
तो उसे लिख ही जाते हैं ।
"विवेक तिवारी"
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३५=कभी किसी रोज़
किसी अधूरी कविता में
उमड़ती-घुमड़ती-लहराती
जागती लहरों से मुलाक़ात

और फिर
इबारतों और अरमानों में
क्षितिज तक गूंजती
खनकती एक आवाज़

और फिर उसी कल्पना से
ज़ेहन में उभरते
हरे-भरे जंगल,पहाड़ी,पगडंडियों पर
तुम्हारी मौजूदगी का एहसास

सचमुच
पता ही नहीं चलता
और कुछ चीज़ें अनायास ही आकर
इस ज़िंदगी का हिस्सा बन जाती हैं ।
"विवेक तिवारी"
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३६=इस चेहरों की दुनिया में
युगों के पार
मेरे भीतर हर लम्हा
मौसमों,खुशबुओं,चाहतों
और प्रेम के वैभव से लदी
किसी परिपूर्ण छवि की
भाव-संलग्नता से उत्पन्न
अपूर्व छटाओं
गहरी संवेदनाओं
और मन को छू लेने वाली भावनाओं में
तुम्हें लिखकर
अक्सर सोचता हूं

कि इस जिन्दगी की रफ़्तार में
एक दिन
जब मैं न रहूं
जब तुम न रहो
पर तब भी
एक रोशनी-सा झिलमिलाता
मन को पुलकित करता
कालजयी मेरा प्यार रहे

और न जाने कितने देश-कालों की
अनंत यात्रा करती हवाओं में
झलकता-थिरकरा-गूंजता
उमगते उल्लास को पल्लवित करता
तुम्हारे होने का अहसास रहे |
"विवेक तिवारी
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३७=जीवन के किसी मोड़ पर
सूरज की रोशनी के सातो रंगो में
प्रेम की झलक
सृजन का एक निर्बाध प्रवाह

कुछ और नहीं
बस.............
दूर-दूर तक पसरी खामोशी
अतृप्त इच्छाओं
अन्तर्द्वन्दों
और छ्टपटाटे अधूरेपन में
ह्रदय के भीतर से उभरते
अनेकानेक भावों में
सकून-शान्ति
और प्रेम के समृद्ध आशयों की तलाश है

पर पहले बहुत डर था
तुम्हें खोने का
पर आज
कोई डर नहीं है
क्योंकि तुम्हें पाया है
चेतना की अतल गहराइयों में
सम्पूर्णता से
बस किसी दूसरे रूप में
शायद प्यार के मायने व्यापक हो चले हैं
"विवेक तिवारी"
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३८=जानता हूं
बदलते वक़्त की रफ़्तार में
दूर-दूर तक
धुँधली होती जा रही तस्वीरों
और वैचारिक धरातल के
चरम बिन्दुओं पर
किसी को जीना
सबके बस की बात नहीं

और इसी उधेड़बुन में
समय के पार
चेतना में फैले
भीतरी भावों
और असंमजस भारी आँखों में
जब एक वजूद झिलमिलाता
और अतीत के छूटे पन्नें फड़फड़ाने लगते

तो इस जीवन की लपर-झपर से दूर
किसी एहसास से पुलकित
पल्लवित होते सपनों
विचारों
और संवेदनाओं की गुंजलको से
इस धरती को रोशन करना
कुछ और नहीं
बस एक वज़ह है जीने की
"विवेक तिवारी"
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३९=आज वर्षों की अपनी
पहाड़-सी प्रतीक्षाओं के बावजूद
तुम तक पहुँचने वाला
कोई रास्ता नहीं है
प्रेम की मेरे कोई सार्थकता नहीं है

शायद एक यात्रा ख़त्म हुई है ?

और अब
उन घनेरी स्मृतियों की
भँवर डालती लहरों में
पीछे मुड़ कर देखता हूं
तो लगता है
कुछ ख़ास नहीं
बस
राग-विराग-अनुरागों में
थम-थम कर बरसती बारिश
और जीवन के
बनते-बिगड़ते इन्द्रधनुषों में
कुछ सपने थे
जो बिखर गये
"विवेक तिवारी"
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४०=इस दुनिया में
हर पल
इतिहास-समाज-सभ्यता
और गुजरते वक़्त के साये में

जब अपनें भीतर का अहसास
हजारों गुलाबों की खुशबू लेकर
हर एक शै पर छाता चला जाता

तो दूर-दूर तक फैले
देशों,द्वीपों,मरुभूमियों
मैदानों,घाटों,पहाड़ियों
और वन-प्रान्तरों की
अनन्त श्रृंखलाओं में
हवाओं से लहराते-भीगते
दरख़्तों के टंगे पत्तों पर
उमगती हरियाली
गुंजारते कीट
और बारिश की हल्की फुहारों में
दूर कहीं से
कलकल करती
आती एक नदी

और इस सुरम्य वातावरण से उत्पन्न
शब्दों,विचारो और संवेदनाओं में
एक झिलमिल रोशनी-से-छलछलाते
प्रतिबिंबों की तुम्हारी दस्तक पाकर
सोचता हूं
कहाँ हो तुम ?
और कहाँ नहीं हो तुम ?
"विवेक तिवारी"
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४१=इस धरती पर
किसी जगह
समुद्र की लहरों से
बहुत दूर

जीवन के
हर एक सुख-दुख
दर्द-बेचैनी
और अकेलेपन से बेखबर

प्रेम में सम्मोहित
ह्रदय के पन्नों पर दर्ज

तुम पर लिखी
हर एक कविता
जब तुम्हारे सामने
फीकी लगने लगती  है

तो इस दुनिया की
रंगीनियों को किनारे कर
चारो तरफ हावी होते
तुम्हारे ख्वाबों-खयालों के
ढेरों-सिलसिलो के बीच
कहीं भीतर से ईजाद होती
तुम्हारे मन को
पा लेने की एक चाह

और फिर
इन आँखों में
प्रेम की गहन परछाइयों
और ख्वाबों की
फिसलन भरी नीव पर
तुम्हारी शख्सियत का
गजब सा नशा

शायद
एक सपना
कोई कोरी भावुकता
या उसके अतिरिक्त
खैर जो भी है

पर आज भी
इन युगों के अंतरालों के पार
पुराने नगरों की झूमती हरियाली के बीच
मन तो होता है
तुमसे मिलने का
और कुछ
अधूरे शब्द कहने का ।
"विवेक तिवारी"
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४२=इस धरती पर
किसी जगह
एक रंग-बिरंगी
अनन्त जिजीविषा से परिपूर्ण

कोई ख़ुशबू
कोई मासूमियत
और कोई मुस्कान

जब अपने भीतर की जंजीरों को तोड़कर
मोगरा के फूलों की महक की तरह
दूर-दुर तक फैलती हवाओं
लहरों
और पर्वत श्रेणियों में
बिखरती-लहलहाती चली जाती

तो युग-बोध और काल-चेतना से परे
ह्रदय के भीतर
ठहरे हुए मौसमों
दस्तकों
भावों
और पुरानी आवाज़ों में
आज भी कुछ ऐसा लगता है
जिसे पूरी उम्र जिया जा सके ।
"विवेक तिवारी"
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४३=बारिश के दिनों में
किसी समुद्र तट पर
तैरती नावें
गूंजता माझियों का गीत

फिर चांद-सितारों की
झिलमिल रोशनी में
किसी छत पर
बारिश की एक-एक बूंद का
अहसास करती
एक मानुषी की
चमकती आँखें
दमकता रूप

और बहुत-सी बातें
बहुत से रहस्य
कहते हैं मुझसे
कुछ तो होगा उसमें
जो सारी ऋतुएं उसकी हैं

और फिर
उस समुद्र तट से
बहुत दूर
किसी महानगर में
बारिश के बाद
जब सीली हवाएं
सीली जमीन
और अंधियारे में
चांदनी बिखेरते चांद में
उसका अक्स
दिखता है
तो ह्रदय से
बस
यही प्रार्थना निकलती है

भगवान!!!!!!
इस चांद को
मेरी खिड़की से
कभी दूर मत करना
क्योंकि
उस चांद को
देखनें का
मेरे पास
बस यही एक सहारा है।
"विवेक तिवारी"
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४४=एक दुनिया मेरी भी
फूलों की
ऋतुओं की
और ख़्वाबों की मंजरियों की
और उसमें
पूरब की ठंडी हवाओं की तरह
अचानक दाख़िल होती तुम
न जाने कब आकर
कहाँ
अंतर्ध्यान हो जाती हो

फिर अवसाद में डूबा मैं
यादों की एक अंतहीन रेत के साथ
कभी देशों-द्वीपों-मरुभूमियों में
कभी गीतों-ग़ज़लों-छंदों में
उन ठंडी हवाओं को तलाशता
खोजता-फिरता मैं
खोते-खोते कहीं खो जाता हूं ।
"विवेक तिवारी"
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४५=सोचता हूं
क्या लिखूं
तुम्हारी आँखों पर
बस लगता है
ये आँखें
ख़ुशबू,बादल,हवा
और बारिश की बहती
जल-धाराओं के साथ
थिरकते ख़्वाबों की पगड़डियों पर
उमड़ कर आती
एक घटा की तरह
चेतना में
समाती-जाती
प्रेम की सच्ची
और खरी कविताएं हैं।
"विवेक तिवारी"
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४६=इस चेहरों की दुनिया में
फूल,पत्ती,बारिश
हवा और बादलों के बीच
तुम्हारी सादगी
मुस्कुराहट
और चमकती गहरी आँखों में
जीवन के एक अर्थ का अहसास
इस समूची कायनात में
किसी ख़्याल को
लिखने जैसा नहीं
कुछ उभारने जैसा है

पर शायद
कितना अजीब है
जीवन के हर-एक मोड़
उथल-पुथल
और उठापटक के बावजूद
इन झूमते ख़्वाबों की
बसती-उजड़ती दुनिया में
हर उस पल की प्रतीक्षा करना
जिसका कोई                                                                              
अस्तित्व ही न हो..।
"विवेक तिवारी"
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४७=आज वर्षों से
प्राचीन सभ्यताओं की भव्यता का एहसास लिए
जश्नों और रंगीनियों में डूबा एक शहर
जिसमें रहने वाले कुछ लोग
कभी
दर्शन के ग्रन्थों में
तुम्हारी छवियां देखकर
"आचार्य शंकर" के "जगत मिथ्या" को
मिथ्या करार देते हैं

और कभी
ख़ाली समय में
ह्रदय के अन्दर से बाहर आती
तुम्हारी यादों की
रंगीन लहरों के बीच
मचलते टेसू के रंगों से
तुम पर
कुछ कविताएं लिखकर
सोचते हैं
एक उत्फुल्ल वसंत
और उस चांद को
सहेजने के बारे में |
"विवेक तिवारी"
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४८=शायद तुम नहीं जानती
कोई बहुत चाहने लगा है तुम्हें
और इन अन्धेरी रातों में
तुम्हें याद करके
बुनता है एक दुनियां
सुनहरे सपनों की
चमकते फूलों की
करिश्माई रंगों की

और कभी क्षितिज को देखकर
वो पुकारता है तुम्हें
ह्रदय की करुण प्रार्थनाओं की तरह

पर न जाने क्यों
वो पुकार
ह्रदय की गहरी तहों से उठनें के बावजूद
तुम तक नहीं पहुँच पाती
और तुम्हारे घर तक जाने-वाले
अंजान रास्तों से
गुजरती हुई
खोते-खोते
कहीं खो जाती है ।
"विवेक तिवारी"
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४९=कभी-कभी दिखता है
किसी सागर-तट पर
लहरों के बीच
एक अजीब सम्मोहन
एक असीम सौंदर्य
चांदनी रात में
दिप-दिप करते हुए
एक चांद का अक्स
किसी सागर-तट पर रहती
वसंत की उस पुत्री का

और कभी-कभी
उस सागर-तट से बहुत दूर
किसी नदी के किनारे
बसे किसी महानगर में
जब चैत्र की हवा
किवाड़ झिझोड़ती है
तो बाहर कुछ नही दिखता
बस गूंजती है एक हंसी
और याद आता है
उसकी आँखों का रंग
"विवेक तिवारी"
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५०=आकाश में
इन्द्रधनुषी आभा को
पराजित करता
तुम्हारी काया का
अमर-सौन्दर्य
विस्मित करता है
उन स्वर्ग की
अप्सराओं को
जो अपने
सौन्दर्य पर
अभिभूत रहती हैं

और उन कवियों को भी
जो जीवन-दर्शन से
अपरिचित होकर
विक्षिप्त-कवियों की तरह
किसी देश-काल में
उपमाएं देकर
तुम्हें अमरत्व प्रदान करते हैं

और जो
कभी तुम्हारी सुन्दरता पर
कभी तुम्हारी बौद्धिकता पर
मोहित होकर
अपने मन की
सूखी धरती पर
इंतज़ार करते हैं
बारिश के एक तेज़ झकोरे का ।
"विवेक तिवारी"
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५१=एक लड़की
रेत-हवा-बारिश
और चांद-तारों के बीच
ख़ुद से रू-ब-रू होती
उजले रंगों से उज़ाला करती
रहती है हर पल
किसी जादुई दुनिया में
एक सुहावने सपने की तरह
और उसी जादुई दुनिया में
उन्मुक्त गगन में उड़ती
नए-नए ख़्वाबों-ख़्यालों में कुलांचे भरती
उसकी आंखों में छिपा है
उसके दिल का पता ।
"विवेक तिवारी"
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५२=आज इतने वर्षों बाद
तुम्हारी आँखें उतना परेशांन नहीं करती
जितना वो सवाल
जो कभी चैन से जीने नहीं देता
और कभी चैन से मरनें नहीं देता
क्या तुमने कभी प्यार नहीं किया ?
क्या तुमने कभी याद नहीं किया ?
"विवेक तिवारी"
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५३=आज वर्षों बाद
इन चमकते नगरों की
भीड़-भरी सड़कों के बीच
कहीं नहीं हैं
अपनी मुहब्बत के निशान
सब कुछ बदल चुका है
पर स्मृतियाँ लुप्त नहीं
और इसी उलझन में उलझा मैं
कभी अपने-अधूरे सपनों की
शक्ल लेकर
टहलता,
खोजता-फिरता तुमको
तुम्हारे घर तक
जाने वाली
उन सड़कों में पहुँच जाता हूं
जहाँ आज भी दिखता है
एक-खोता चांद
बिखरे-फूल
झरे-पलाश
और विदा होती तुम
कुहासे की नीरवता में....।
"विवेक तिवारी"
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५४=कभी अनुभूतियों के कारण
कभी व्यस्तताओं के चलते
कभी नए विषय नहीं मिलते
तो कभी नई भावनाएं नहीं

फिर थमते हैं शब्द
ख़त्म होती हैं भाषाएं
और चैत की हवाओं में
टूटते सपनों के सुलगते-प्रतिबिम्ब
जलकर-राख हो जाते हैं

और फिर
कुछ लिखने का
मन नहीं करता

पर इसके बाद भी
कुछ उलझते प्रश्न
तड़पते शब्द
भटकते रहस्य
और एक अपरिचित यात्रा
शेष रह जाती है ।
"विवेक तिवारी"
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५५=शायद यह सच है
ज़िन्दगी के बदलते पन्नों
और बढ़ती रफ़्तार में
हम शायद कभी न मिलें
पर चेतना के स्तरों पर
तुमसे मिलने का इन्तज़ार 
सदियों सा लम्बा 
पर बहुत ही संजीदा
चाहे तुम जब भी मिलो 
जहां भी मिलो ।
"विवेक तिवारी"
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५६=किसी देश के
किसी शहर में 
कहीं रहती हो तुम
और किसी देश के
किसी शहर में
तुम्हारे होने को
महसूस करता हूं मैं
"विवेक तिवारी"
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५७=इन दिनों
जब किसी झलक से
कहीं सांस नहीं थमती
दुनिया नहीं ठहरती
पर फिर भी 
चांद उगते ही 
कुछ उमड़ आता है
सुनहरे पन्नों पर

जबकि इन्हीं दिनों 
इन नदी
पहाड़ों
नीले-आसमानों 
और मौसम के हर एहसासों में
वैसे तो सबकुछ है तुम्हारे बिना
और न मानो तो कहीं कुछ भी नहीं ।
"विवेक तिवारी"
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५८=इस दौर मैं 
शायद मुमकिन नहीं
विगत में लौटना
पीछे छूट गये लम्हों
वन-नदियों को 
फिर से जी लेना

पर किसी जनम में
किसी डगर पर
वही ख़ूबसूरत आँखें लिए
तुम मिलना मुझे
कुछ लम्हे जी लेने के लिए ही सही ।
"विवेक तिवारी"
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५९=बस यूँ ही अचानक
कभी-कभी आता हैं याद
एक रोली लगा मुस्कुराता चेहरा
दो काली आँखों की गहराई
कोई पीला सूट
कोई साहित्यक शब्द
कमर तक लम्बे गहरे-भूरे-बाल
लम्बी नाक
और बाएं हाथ की मध्यमा में लाजवर्द की अंगूठी

जो शायद सब 
एक महाकाव्य की नायिका जैसे हैं.............

और फिर 
याद आता हैं
उसके खो जानें का गम
इस जीवन का सूनापन 
सड़कों-पगड़डियों का अकेलापन
और मीलों दूर तक बिखरी शांति

और फिर
धूल-धुन्ध-व्यथा 
और क्षोभ के विराट चक्रों में
दीप्तहीन
आठों प्रहर की एक ऐसी जिन्दगी
जिसका हर पल गुजरा है
एक युग की तरह
"विवेक तिवारी"
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६०=तुम 
जैसे कोई राग
जैसे कोई रंग
और जैसे
किसी वीराने में 
कहीं दूर से आती 
कुछ काली घटाएं
कुछ रंग-बिरंगे सपने
और एक समुन्दर की गहराई की
कोई अपरचित कहानी ।
"विवेक तिवारी"
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६१=तुम्हारी आंखें बहोत परेशान करती हैं
इनसे कह दो कम परेशान किया करें ।
"विवेक तिवारी"
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६२=बहोत ज़्यादा शब्दों में तुमसे क्या कहूँ
बस जान लो 
तुम्हें चाहता हूँ
तुमसे प्रेम है ।
"विवेक तिवारी"
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६३=एक दूसरे को जानना
समझना और ख़याल रखना
भावनाओं को महसूस करना 
ये सब मेरे अलावा
तुम्हें भी तो करना है ।
"विवेक तिवारी"
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६४=एक दिन
जब रेत की तरह
हथेलियों से फ़िसल चुका होगा वक़्त
और नये शहर पुराने ख़ंडहरों में बदल चुके होंगे
बहुत संभव है 
ये वक़्त का तक़ाजा
किसी प्रहर
जीवन के कई अर्थों
और आवाज़ों को भी बदल दे

और शायद 
सभ्यताओं की कई कहानियों को भी 

पर शायद तुम्हें नहीं

क्योंकि तुम रहोगी हमेशा
इन छितराए हुए पन्नों पर
वैसे की वैसी
ख़ूबसूरत, अनमोल
नए-नए सोपानों को उज्ज्वल करती
इस धरा के पूरे अन्त तक ।
"विवेक तिवारी"
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६५=इस ज़िन्दगी में 
किसी दिन 
किसी लम्हे
किसी मोड़ पर
तुम एक लम्हा मेरे नाम कर देना
जिसे ओढ़ते-बिछाते
जीते-सांस लेते
गुजर जाए बस ये उम्र ।
"विवेक तिवारी"
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६६=एक अज़ीब कहानी है प्रेम की
जितना ही ज़्यादा 
चाहता चला जाता हूँ तुम्हें
उतनी ही ज़्यादा
दूर होती चली जाती हो तुम
क्या सचमुच
सच्चे प्रेम में कोई कभी मिलता नहीं ?
"विवेक तिवारी"
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६७=प्रेम
नहीं चाहता
तुम्हे आज़ाद करना
वो जकड़े रहना चाहता है तुम्हे
पुरातन ज़ंज़ीरों में
और फिर
कल आज और कल 
बोता रहता है
अपने सपनो की फसल
बंजर धरती पर ।
"विवेक तिवारी"